आज सब कुछ बदल गया है। हमारा शहर, हमारी ज़रूरतें, हमारा काम और यहाँ तक कि रिश्तों के मायने भी!
इन सब चीज़ों के लिए हम किसी एक पर्टिकुलर चीज़ को ब्लेम नहीं कर सकते हैं लेकिन इतना ज़रूर कह सकते हैं कि हमारे रिश्तों के मायने कहीं न कहीं हमारे काम की वजह से प्रभावित हो रहे हैं।
जी हाँ, रिश्तों को सबसे ज़्यादा दरकार समय की होती है! भले ही हम किसी को कम समय दें लेकिन जितना समय दें पूरी तरह दें! रिश्तों की यह डिमांड आजकल हम ढंग से पूरी कर पाने में असमर्थ हैं।दरअसल आज हमारे ऊपर हमारे काम का इतना बर्डन है कि हमें अपने करीबियों के साथ समय बिताने का मौक़ा नहीं मिल पाता है।
अगर हम अपने रिश्तेदारों के साथ समय बिताते भी हैं तो ऐसे में हमें यही सोच सताती रहती है कि हमारा छूटा हुआ काम कैसे पूरा होगा? होता ये है कि जो टाइम हम उनको देते हैं वो न तो क्वालिटेटिव होता है और न ही क्वांटिटेटिव!
देखने में तो यह बहुत ही कॉमन और छोटी सी बात लगती है लेकिन इसके साइड इफेक्ट्स क्या होते हैं वो शायद ही हमें पता हो! आइए आपको बताते हैं कि जब हम काम और रिश्तों के बीच तालमेल नहीं बिठा पाते हैं तो ऐसे में वास्तव में क्या होता है?
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आपसी तनाव
जब हम अपने रिश्तेदारों या अपने पार्टनर को समय नहीं दे पाते हैं अर्थात ज़्यादा वक़्त काम में ही बिताते हैं तो ऐसे में उन्हें लगता है कि हमें उनकी बिलकुल भी फिक्र नहीं है। ऐसे में उनका बिहेवियर हमारे प्रति बदलने लगता है जिससे कि आपसी तनाव उत्पन्न हो जाता है।
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लड़ाई झगड़े बढ़ जाते हैं
काम और रिश्तों के बीच तालमेल न होने का सबसे बड़ा साइड इफेक्ट ये होता है कि हमारे और हमारे रिश्तेदारों या पार्टनर के बीच झगड़े बढ़ जाते हैं। यहाँ तक कि एक छोटी सी बात का बतंगड़ बनने में समय नहीं लगता है!
कभी कभी तो बात इतनी बढ़ जाती है कि संभालना मुश्किल हो जाता है और किसी काउंसलर या किसी अन्य व्यक्ति की मदद लेनी पड़ती है ताकि रिश्ते को बचाया जा सके।
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निराशा का जन्म होता है
जब हमारा काम हमारे रिश्तों पर हावी हो जाता है तब हम अपनों से काफ़ी दूर हो जाते हैं। कभी कभी तो यह दूरी इतनी बढ़ जाती है कि दुख के समय हमारे पास सांत्वना देने के लिए कोई भी मौजूद नहीं होता! परिणाम स्वरूप हम टेंशनायड हो जाते हैं जिससे कि हमारे अंदर निराशा का जन्म हो जाता है।
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ज़िम्मेदारियां लगती हैं पहाड़
जब हमारे ऊपर काम का बर्डन बढ़ जाता है तो हमारे लिए ये बहुत मुश्किल हो जाता है कि हम अपने के लिए समय निकाल पाएँ। जब बार बार हमें अपनों के लिए समय निकालना हेतु में सोचना पड़ता है तो ये हमें काफ़ी मुश्किल लगता है। नतीजा यह निकलता है कि हमारी ज़िम्मेदारियाँ हमें किसी पहाड़ से कम नहीं लगती हैं।
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संवेदनशीलता घट जाती है
हालाँकि हम जानते हैं कि काम के बिना गुज़ारा नहीं है लेकिन हर वक़्त काम के बारे में ही सोचना और काम पर ही ध्यान देना ग़लत है। जब हम अपनों के लिए समय निकाल ही नहीं पाते हैं तो ऐसे में धीरे धीरे हमारे लिए उनकी महत्वता घटने लगती है।
एक वक़्त ऐसा आता है कि हमारी संवेदनशीलता उनके लिए इतनी घट जाती है कि हमें फ़र्क ही नहीं पड़ता है कि उन्हें क्या समस्या है और क्या ख़ुशी! हमारी अपनी एक अलग दुनिया बस जाती है जिसमें कि सिर्फ़ हम होते हैं और हमारा काम! यक़ीन मानिए ये किसी भी लिहाज़ से नॉर्मल नहीं है।
अगर हम चाहते हैं कि हम एक नॉर्मल इंसान कहलाए जाए तो ये बहुत ज़रूरी है कि हमारी ज़िंदगी में चीज़ों का एक बैलेंस रूप हो। फिर चाहे यह काम हो या फिर हमारे रिश्ते। रिश्तों में तालमेल हम निम्नलिखित तरीक़ों से बिठा सकते हैं।
1. ओवरटाइम से बचें
कभी कभी हम भी अपने काम के प्रति इतने डिपो टेड हो जाते हैं कि हम ओवरटाइम करने लगते हैं तो यह भी एक रीज़न है कि हमारा एक विकेट और हमारा क़ीमती समय हमारे काम में ही निकल जाता है बेहतर है कि ओवरटाइम से बचा जाए।
2. लालच से दूर रहें
जैसा कि हमने कहा कि हमें ओवरटाइम से बचना चाहिए ताकि हम अपना समय अपने रिश्तों पर डिवोट कर सकें। हमने ओवरटाइम का एक रीज़न भी बताया कि हम अपने काम के प्रति समर्पित होकर ओवरटाइम करते हैं। ये तो रीज़न है ही लेकिन ओवरटाइम का दूसरा बड़ा रीज़न या तो लालच होता है या फिर मजबूरी!
अगर ओवरटाइम किये बिना आप अपनी फ़ैमिली का गुज़ारा नहीं कर सकते तो आप ओवरटाइम को एक बार कनसीडर कर सकते हैं लेकिन यदि आप किसी इस्पैसिफ़िक ईनाम या पैसे की लालच में ओवरटाइम करते हैं तो फ़ौरन सतर्क हो जाइए क्योंकि जब आपके रिश्ते ही नहीं रहेंगे तो इन चीज़ों का होना या न होना कोई मायने ही नहीं रखेगा।
3. रिश्तों के मामले में प्रैक्टिकल नहीं इमोशनल
वैसे तो हमें प्रेक्टिकली सोचना चाहिए ताकि अगला बंदा हमारा लाभ न उठा सके लेकिन बात जब रिश्तों की आती है तो वहाँ पर यह लॉजिक कार्य नहीं करता है।
रिश्तों के मामले में हमें प्रैक्टिकली सोचने के बजाय इमोशनल होना चाहिए ताकि अपनों के लिए हमारा प्यार सदा क़ायम रहे।कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि हमें दिमाग़ के बजाए दिल की सुनना चाहिए बात यदि रिश्तों की हो तो।
4. क्वांटिटी नहीं बल्कि क्वालिटी
वैसे तो रिश्तों में तालमेल बिठाना ज़रूरी है, ये बात हमें कोई और नहीं समझा सकता जब तक कि हम ख़ुद इस चीज़ को ना मान लें और जब हम इस चीज़ को मान लेते हैं तो हम अपनों के लिए समय ज़रूर निकाल लेते हैं।
अब बात आती है कि यदि हमें अपनों के लिए बहुत कम समय ही मिल पा रहा है तो बजाय इसके कि हम निराश हों बल्कि हमें उसका सदुपयोग करना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि जब हम अपनों के साथ हों तो फिर चाहे कितने ही कम समय के लिए ही क्यों न हो पूरी तरह से उनके साथ हों अर्थात हम उनके साथ जो भी समय बिताएँ वह क्वालिटेटिव हो ताकि ज़िंदगी को ख़ुशगवार बनाया जा सके।
तो ये रही रिश्तों में तालमेल बिठाने की कुछ विधियां! उम्मीद करते हैं कि आपको यह लेख अवश्य पसंद आया होगा। भविष्य में भी हम आपके लिए कुछ ऐसे ही सुझावों को पेश करते रहेंगे ताकि आपको किसी मोड़ पर कोई समस्या न हो। यदि आपका इस लेख से संबंधित कोई भी सवाल या सुझाव हो तो आप उसे कमेंट पेटिका में बेझिझक लिख सकते हैं।